मालती जोशी
जन्म: 4 जून 1934। स्थान : औरंगाबाद (पूर्व हैदराबाद राज्य)। शिक्षा : एम.ए. हिंदी, आगरा विश्वविद्यालय, 1956। महाराष्ट्रीयन परिवार में जन्म हुआ, इसलिए मातृभाषा मराठी है; पर शिक्षा-दीक्षा हिन्दी में हुई। लेखन का श्रीगणेश भी हिन्दी में ही हुआ अब तो खैर मराठी में भी लिखती हैं। साहित्यिक जीवन की शुरुआत गीतों से हुई, फिर बच्चों के लिए कहानियाँ लिखीं, कुछ ललित निबंध लिखे। फिर कहानियों का जो दौर शुरू हुआ तो अब तक जारी है। इन्होंने कई कहानियों के रेडियो नाट्य रूपांतर किए। कुछ कहानियों को दूरदर्शन ने भी मंचित किया। * 34 पुस्तकें प्रकाशित, जिनमें दो मराठी कथा-संग्रह, दो उपन्यास, पाँच बाल-कथाएँ, एक गीत-संग्रह और शेष कथा-संग्रह सम्मिलित * हिंदी की लगभग सभी लब्धप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं लघु उपन्यास प्रकाशित। * करीब दो दर्जन कहानियों के रेडियो नाट्य रूपांतर, जया बच्चन द्वारा सात कहानियों पर ‘सात फेरे’ सीरियल, गुलजार द्वारा निर्देशित सीरियल ‘किरदार’ में दो कहानियों का समावेश। ‘भावना’ सीरियल में तीन कहानियों का प्रस्तुतीकरण। * अहिंदीभाषी कथा-लेखिका के रूप में शिवसेवक तिवारी पदक, रचना पुरस्कार, कलकत्ता 1983, मराठी कथा-संग्रह ‘पाषाण’ के लिए महाराष्ट्र शासन का पुरस्कार सन् 1984। * अक्षर आदित्य सम्मान, कला मंदिर, मधुवन गुरुवंदना सम्मान, महिला वर्ष में स्टेट बैंक ऑफ इंदौर सम्मान, म.प्र. के राज्यपाल द्वारा अहिंदीभाषी लेखिका के रूप में सम्मान (1985)। म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन के ‘भवभूति’ अलंकरण से वर्ष 1998 में विभूषित। कृतियाँ : ‘वो तेरा घर, ये मेरा घर’ : (प्रतिरोध, ‘साँझ की बेला, पंछी अकेला’, मेरे कत्ल में तुम्हारा हाथ था, अतृप्त आत्माओं का देश, हमको हैं प्यारी हमारी गलियाँ, कबाड़, मनीऑर्डर, वो तेरा घर, ये मेरा घर।), दस प्रतिनिधि कहानियाँ, औरत एक रात है : (निर्वासित कर दी तुमने मेरी प्रीत, माँ तुझे सलाम, अवसान एक स्वप्न का, स्मृति कल्प, औरत एक रात है, पीर पर्वत हो गई है, जागी आँखों का सपना, एक पल आस्था का।), पिया पीर न जानी : (गतांक से आगे, पिया पीर न जानी, मुक्ति-पर्व, पंख तौलती चिड़िया, स्पर्धा, अग्नि-पथ, बेघर, साँस-साँस पर पहरा बैठा।), रहिमन धागा प्रेम का : (रहिमन धागा प्रेम का, पिता, प्रलय के बावजूद, एक सार्थक अहसास, किसी को किसी से शिकायत नहीं है, यशोदा माँ, तुम मेरी राखो लाज हरि।), बोल री कठपुतली, मोरी रँग दी चुनरिया : (सती, मोरी रँग दी चुनरिया, यातना-चक्र, आखिरी सौगात, छोटी बेटी का भाग्य, स्वयंवर।), पाषाण युग, शापित शैशव तथा अन्य कहानियाँ, मालती जोशी की कहानियाँ, पाषाण, परिपूर्ति, मध्यान्तर, समर्पण का सुख, विश्वासगाथा, पराजय, सहचरिणी, एक घर सपनों का, पटाक्षेप, राग-विराग, मन न भये दस-बीस, शोभायात्रा, अंतिम संक्षेप, आखिरी शर्त। Listen Malti joshi stories on Gaatha.मुंशी प्रेमचंद की तरह मालती जोशी की कहानियों की भी भाषा सहज, सरल और संवेदनशील होती है। उन्होंने मध्यवर्गीय परिवारों की गहन मानवीय संवेदनाओ के साथ नारी मन के सूक्ष्म तंतुओं को रेखाकित किया है। उनकी कहानियों में स्थानीय शब्दों के साथ अलंकारिक शब्दावली का भी बहुतायत से प्रयोग होता है, जिससे सभी कहानियाँ मार्मिक और ह्रदयस्पर्शी बन पड़ी हैं। उननकी एक कहानी है - 'स्नेह बंध'। यह पूरी कहानी मुख्यतः प्रमुख पात्र मीता और उसकी सास के इर्द-गिर्द घूमती है। कथानक व्यक्ति के आचरण की दो पर्तों पर केंद्रित किया गया है। आदमी कभी कभी अपने बाहर का आचरण इतना जटिल कर लेता है कि उसे अपने अंतर का परिदृश्य स्वयं उसके वश से बाहर हो जाता है। वह बाहरी आचरण से ही संचरित होने लगता है। ऐसी ही है मीता और उसकी सास की दुनिया। मीता का आचरण उसकी सास के मन में अंकित परम्परागत मध्यवर्गीय संस्कारों में ढली बहू के चित्र से मेल नहीं खाता है। सास बहू के बीच की यह दूरियाँ लम्बे समय तक ख़त्म नहीं होती हैं। कहानी में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब उनकी दूरियाँ कुछ कम होती प्रतीत होती हैं लेकिन सास का अहं हठ धर्मिता तथा पूर्वाग्रह सम्बंधों को सहज बनाने में बाधक सिद्ध होते हैं। मीता की सास का यह व्यवहार उनके पति और दोनों पुत्र ध्रुव तथा शिव को भी पसंद नहीं आता है लेकिन उन्हें मीता की सास को ठेस न लगे, इसलिए सहन करते रहते हैं। एक दिन मीता का पति विदेश चला जाता है। ससुर के आग्रह के बाद भी मीता पति के साथ नहीं जाती क्योकि वह नहीं चाहती, उसके विदेश जाने के लिए अनावश्यक व्यय किया जाए। उसकी यह भावना अपने घर के प्रति उसके उत्तरदायित्व को दर्शाती है। एक दिन जब मीता अपने मायके में होती है, उसके ससुर की तबीयत अचानक ख़राब हो जाती है। पता चलते ही मीता तत्काल उन्हें अस्पताल ले जाकर उनका अच्छा इलाज कराती है। इसके बाद सास का भी हृदय परिवर्तित हो जाता है। उन्हें मीता बहू के रूप में ही नहीं बेटी के रूप में भी दिखाई देने लगती है। कृष्णा सोबती, मृणाल पाण्डे, उषा प्रियंवदा, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, राजी सेठ, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, रमणिका गुप्ता, प्रभा खेतान आदि की तरह हिंदी कहानियों में स्त्री मन के सूक्ष्म स्पंदनों को अपने लेखन में मजबूती से रखने वाली लेखिकाओं में मालती जोशी ने पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों का प्रतिरोधी स्वर मुखर किया है। पुरषसत्तात्मक समाज में बचपन से ही लड़का-लड़की का विभेद होता है। दोनों के साथ अलग-अलग तरह का व्यवहार किया जाने लगता है। यही से लड़की मां के और पुत्र पिता के परिवेश का आदी होता चला जाता है। ऐसे तमाम तरह के परिवेश को मालती जोशी अपनी कहानियों में बड़ी सघनता और सूक्ष्मता से पूरी पठनीयता के साथ बुनती हैं। मालती जोशी अविस्मरणीय स्तर के संस्मरण भी लिखती हैं। उनका ऐसा ही एक संस्मरणात्मक आत्मकथ्य है - 'इस प्यार को क्या नाम दूं?' वह लिखती हैं - 'इधर एक अभूतपूर्व घटना घटी है। कम से कम मेरे लिए तो यह बहुत ही खास और अहम है। लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व की बात है। स्वामी सत्यमित्रानंदजी का कोई कार्यक्रम जबलपुर में था। एक दिन प्रवचन स्थल पर कुछ महिलाओं ने मुझसे सम्पर्क किया। कहा कि हमलोग एक महिला मंडल या कहिए कि लेखिका संघ की स्थापना कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि उसका उद्घाटन आपके हाथों हो। मना करने का कोई प्रश्न नहीं था। मैंने तुरंत हामी भर दी। दूसरे दिन एक सदस्य के घर में अत्यंत घरेलू वातावरण में वह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। कुल जमा आठ-दस महिलाएं थीं, इसलिए भाषणबाजी नहीं हुई। गीत-संगीत ही कार्यक्रम का मुख स्वर रहा। बाद में जीवन की आपाधापी में मैं यह प्रसंग भूल भी गयी। याद तब आयी, जब उस संगठन ने अपने पच्चीस साल पूरे किये। उन्हीं लोगों ने याद दिलायी। बाकायदा निमंत्रण आया कि यह पच्चीसवीं सालगिरह हम आपके साथ ही मनाना चाहते हैं। सो, फिर एक बार जबलपुर पधारे। मैंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि इन पच्चीस सालों में मैं जीवन के उस पड़ाव पर पहुंच गयी हूं, जहां सफर करने से जी घबराता है। अत: क्षमा करें। उनका उत्तर आया कि आप नहीं आ सकतीं तो हम आ जाते हैं। बस वह 14 अप्रैल का दिन हमारे लिए खाली रखें। और वे लोग- करीब अठारह सदस्य जनशताब्दी से आयीं। दुष्यंत कुमार संग्रहालय के सभागार में उन्होंने यह रजत-जयंती मेरे साथ मनायी और रात की ट्रेन से वापस लौट गयीं। इस प्यार को क्या नाम दूं, समझ में नहीं आता। पर ये कुछ ऐसे ही क्षण होते हैं, जब अपने लेखक होने पर गर्व होता है।' मालती जोशी लिखती हैं - मैंने सन 1950 में मैट्रिक पास किया था। उन दिनों स्कूल में अध्यापिकाएं या तो उम्रदराज होती थीं या फिर वे युवतियां जो हालात की मार से हताश, निराश और जीवन से उदासीन होती थीं। ऐसे में ठंडी हवा के झोंके की तरह हिंदी की नयी टीचर का आगमन हुआ। लखनऊ कॉलेज से ताजा ग्रैजुएट होकर आयी थीं। रहन -सहन में, बातचीत में नफासत थी, नजाकत थी। छात्राओं से उनका व्यवहार भी मित्रवत था, जो एक नयी बात थी। लड़कियां तो उनपर लट्टू हो गयीं। मुझमें तब कविता के अंकुर फूटने लगे थे। मैंने उन पर ढेरों कविताएं लिख डालीं। उनकी शादी और हमारी फाइनल परीक्षा आसपास ही सम्पन्न हुई थी। फेयरवेल पार्टी के दिन मैंने अपनी कविताओं की काँपी उन्हें सादर भेंट कर दी थी। उसके बाद कॉलेज, फिर शादी फिर बच्चे, नयी - नयी गृहस्थी, जगह- जगह तबादले- इस आपाधापी में किशोरावस्था का पागलपन सुदूर अतीत की चीज बन गया। कोई बाईस-तेईस साल बाद मुझे अचानक उनका पता मिला। भूला-बिसरा बहुत कुछ याद आ गया, और मैंने उन्हें एक पत्र लिख डाला। पत्र में मैंने सिर्फ अपना नाम और पता लिखा। 'जोशी' जान- बूझकर नहीं लिखा, क्योंकि इस नाम से उन दिनों मुझे थोड़ी शोहरत मिलने लगी थी। लौटती डाक से उनका पत्र आया। उन दिनों चिट्टियां तुरत-फुरत मिल जाती थीं। आजकल की तरह लेट-लतीफी नहीं थी। पत्र में उन्होंने लिखा कि मैं तो लिफाफा देखकर ही पहचान गयी थी कि मालती का पत्र होगा। तुम्हारे अक्षर मेरे लिए जाने-पहचाने हैं। आगे उन्होंने पूछा कि क्या अब भी कविताएं लिखती हो या छोड़ दिया? मैंने उत्तर में लिखा कि कॉलेज के जमाने में इतने गीत लिखे कि लोगों ने मुझे 'मालव की मीरा' की उपाधि दे डाली पर अब कविता छूट गयी है, रूठ गयी है। हां, कभी- कभार कहानियां लिख लेती हूं। तीर की तरह उनका दूसरा पत्र आया- 'कहीं तुम मेरी प्रिय लेखिका मालती जोशी तो नहीं हो?' जीवन में इतनी प्रशंसा बटोरी है, पर सच कहती हूँ इस एक वाक्य ने जो रोमांच, जो खुशी, जो संतोष दिया, उसका जवाब नहीं है।' Download Gaatha App to listen to more interesting Stories in Audio. |
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